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प्रासंगिक (८ जनबरी, १९६९)
क्या मैंने तुम्हें बतलाया कि मैंने इस चेतनाको जान लिया पैर?
जब आप पिछली बार बोली थीं तो आपने जान लिया था ।
हा, लेकिन मैंने कहा था ''अतिमानसिक चेतना'' ।
और बादमें आपने जोड़ा था ''शायद अतिमानव'' ।
हा, ऐसा ही है । यह अतिमानव चेतनाका अवतरण है । मुझे बादमें विश्वास रुले गया ।
पहली जनवरीको आधी रातके बादकी बात है । मै सवेरे दो बजे जाग गयी । मै हँसी चेतनासे घिरी हुई थी जो बहुत ठोस और नयी थी, इस अर्थमें कि मैंने उसे पहले कभी नहीं अनुभव किया था । और वह दो-तीन घंटे ठोस रूपमें बनी रही और फिर फैल गयी, ऐसे लोगोंकी खोजमें गयी जो उसे ग्रहण कर सकते हों... । मैंने जाना कि यह अतिमानव- की चेतना थो, यानी, मनुष्य और अतिमानसिक सत्ताकी मध्यवर्ती सत्ता ।
उसने शरीरको एक प्रकारका आश्वासन और विश्वास दिया है । उस अनुभूतिने शरीरको स्थिर बना दिया है और अगर यह सच्ची वर्ति रख सकें तो उसे सारी सहायता प्राप्त होगी ।
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